इस बीच समझौते पर दस्तखत होने से कुछ ही दिन पहले चीन और रूस, दोनों ने अमेरिका से आग्रह किया कि वह जितनी जल्दी हो सके ईरान पर लगाए गए प्रतिबंध बिना शर्त वापस ले। जाहिर है, चीन के साथ समझौते के बाद ईरान और अमेरिका में प्रतिबंध हटाने की प्रक्रिया को लेकर सहमति बनना पहले के मुकाबले कठिन हो गया है। बहरहाल, इस समझौते का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू एक रणनीतिक गोलबंदी का है। चीन, रूस, ईरान, पाकिस्तान और तुर्की का आकार लेता हुआ गठबंधन वैसे तो अमेरिका के खिलाफ है, लेकिन मौजूदा समीकरणों को देखते हुए भारत के भी कुछ अहम हित इससे प्रभावित हो सकते हैं। खासकर इसलिए भी कि पिछले कुछ समय से अमेरिका और भारत की बढ़ती नजदीकी ने रूस जैसे मित्र देश को आशंकित कर दिया है। दूसरी बात यह कि चीन अगर अगले 25 वर्षों तक ईरान में टेक्नॉलजी, ट्रांसपोर्ट, डिफेंस आदि क्षेत्रों में भारी निवेश करने वाला है तो इसका मतलब यह हुआ कि ईरान की उस पर निर्भरता बढ़ेगी और आने वाले दौर में वह चीन के एक विश्वस्त सहयोगी के रूप में उभरेगा। उसके माध्यम से चीन न केवल पश्चिम एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास करेगा बल्कि अफगानिस्तान और मध्य एशिया में भारत के लिए मौजूद अवसरों को कम करके कश्मीर में भारत की मुश्किलें बढ़ाएगा। ईरान के चाबहार पोर्ट और उसे फीड देने वाली परिवहन व्यवस्था को विकसित करने में भारत अपनी काफी पूंजी लगा चुका है। देखना होगा कि चीन-ईरान समझौते का कोई विपरीत प्रभाव इसपर न पड़े। कुल मिलाकर यह समझौता भारतीय राजनय के लिए कई मोर्चों पर कठिन चुनौतियां लेकर आया है।