हाल के दिनों में ऐसे अनेक मामले देखने को मिले हैं जिनमें बेल को नियम और जेल को अपवाद मानने वाली इस न्यायिक परंपरा का सम्मान नहीं किया गया। इसके उलट सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन तक में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और राजद्रोह जैसी गंभीर धाराएं लगा दी गईं। समझना जरूरी है कि जमानत पर जोर देने वाले जुडिशल नॉर्म्स लोकतंत्र के लिए ऑक्सिजन की भूमिका निभाते हैं। इनके उल्लंघन को हल्के में लेने पर सख्त कानूनों का इस्तेमाल पुलिस-प्रशासन की मनमानी का सबब बन जाता है और अंतत: ये राजनीतिक विरोधियों को सबक सिखाने के औजार बन जाते हैं। कायदे से देखा जाए तो राज्य मशीनरी के इस अति-उत्साह पर रोक लगाने की जिम्मेदारी सरकार की बनती है। लेकिन इस दिशा में कुछ करना तो दूर, उलटे संकेत ऐसे मिल रहे हैं कि सरकारों की इच्छा या मौन समर्थन से ही पुलिस अपने दायरे का विस्तार कर रही है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस और प्रशासन को उसकी हदें याद दिलाने की कोशिश की है। उम्मीद की जाए कि कम से कम अदालत के इस हस्तक्षेप के बाद सभी संबंधित पक्ष अपनी-अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करेंगे और उसे दुरुस्त करने में कोई हीलाहवाली नहीं दिखाएंगे।
ज्यादा बेल, कम जेल
आजकल हर किसी के अंदर हर किसी को जेल में डालने की प्रवृत्ति क्यों मजबूत होती जा रही है? सुप्रीम कोर्ट की ओर से किया गया यह सवाल सभी संबंधित पक्षों के लिए गौर करने लायक है। कोर्ट के ध्यान में पिछले कुछ समय में आए ऐसे कई मामले थे जिनमें अभियोजन पक्ष बिना किसी ठोस आधार या जरूरत के आरोपी को न्यायिक हिरासत में भेजने या जमानत रद्द करने पर जोर दे रहा था। कोर्ट ने कहा कि न्यायशास्त्र के इस सिद्धांत को याद रखने की जरूरत है कि बेल (जमानत) नियम होना चाहिए और जेल अपवाद। इसी संदर्भ में दिल्ली की एक अदालत की यह टिप्पणी भी ध्यान देने लायक है कि राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल असंतोष को दबाने के लिए नहीं किया जा सकता।