सरकार कहती है कि खरीद-बिक्री की मौजूदा व्यवस्था में किसी तरह के बदलाव की बात नया कानून नहीं करता। लेकिन कंपनियों की खरीदारी से अपना धंधा कम रह जाने के डर से कई जगहों पर आढ़तियों ने अपने हाथ खींचने शुरू कर दिए। इसके चलते कई सरकारी खरीद केंद्र ठप हो गए और कुछ जगहों पर कागज-पत्तर को लेकर सख्ती बढ़ जाने के चलते किसानों को अपना धान न्यूनतम समर्थन मूल्य की आधी कीमतों पर निजी व्यापारियों के हाथों बेचना पड़ा। जिस कानून का मकसद बाजार में कॉम्पिटिशन बढ़ाकर किसानों को बेहतर मूल्य दिलाने वाले हालात पैदा करना बताया गया था, वह हकीकत में किसानों को बड़े व्यापारियों के हाथ का खिलौना बना रहा है। घनघोर जाड़े-गर्मी में भी अपने खेत में ही
मरता-खपता रहने वाला भारत का किसान राशन-पानी बांधकर देश की राजधानी में ही डेरा डालने की मनोदशा में पहुंच जाए, यह कोई मामूली बात नहीं है। ऐसे में किसानों को आंसू गैस के गोलों और बदबूदार ठंडे पानी की बौछारों से रोकने की कोशिश बचकानी और बेहद खतरनाक है। जरूरी है कि सरकार हर संभव स्तर पर किसान नेताओं से बातचीत शुरू करे, कम से कम अपने इरादे को लेकर उनका भरोसा हासिल करे और कृषि विशेषज्ञों के जरिये तीनों कानूनों के जमीनी असर का अध्ययन कराए। इस अध्ययन की अनुशंसाएं अगर किसानों को अपनी भलाई में जाती दिखें तो संसद के बजट सत्र में इसकी रिपोर्ट पेश करके आगे का रास्ता निकाला जा सकता है।