बहरहाल, आबे के कार्यकाल को यादगार बनाने में काफी बड़ा योगदान उनकी नीतियों का है। उनकी गिनती इस सदी के दौरान कई देशों में उभरे उन दक्षिणपंथी स्ट्रॉन्गमैन नेताओं में होती है, जिनकी अपने देश की राजनीति पर पकड़ काफी सख्त है। आबे न केवल कंजर्वेटिव नेता हैं बल्कि अपने पुनरुत्थानवादी विचारों के लिए भी जाने जाते रहे हैं। उनकी आक्रामक आर्थिक नीतियों को रीगनॉमिक्स की तर्ज पर आबेनॉमिक्स कहा गया।
अपने कार्यकाल में उन्होंने सेना पर खर्च बढ़ाया और यह सुनिश्चित किया कि जापान को आर्थिक शक्ति के अलावा एक प्रमुख सामरिक शक्ति के रूप में भी देखा जाए। उत्तर कोरिया और चीन को घेरने में सक्रिय दिलचस्पी दिखाने वाली उनकी विदेश नीति का इसमें खासा योगदान रहा। जहां तक जापान और भारत के संबंधों का सवाल है तो आबे युग में वे पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रगाढ़ हुए।
जापान एक अर्से से बड़े पैमाने पर पूंजी का निर्यात करने वाला देश बना हुआ है। बीते तीन-चार दशकों में जापान की पूंजी और भारत की जमीन तथा श्रमशक्ति का संयोजन एक ऐसी ताकत के रूप में उभरा है, जिसकी दुनिया में एक अलग पहचान है। मेक इन इंडिया की घोषणा से पहले अगर किसी एक देश के साथ इस अवधारणा पर अमल शुरू हो चुका था तो वह जापान ही है। दिलचस्प बात है कि एक अभूतपूर्व आपदा (2011 की फुकुशीमा परमाणु दुर्घटना) की पृष्ठभूमि में शुरू हुआ आबे का कार्यकाल दूसरी अभूतपूर्व आपदा (कोविड-19 महामारी) की पृष्ठभूमि में समाप्त हो रहा है। उम्मीद करें कि उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी का समय भी न केवल जापान के लिए और ज्यादा शुभ हो, बल्कि भारत के साथ जापान के रिश्तों को भी नई ऊंचाई पर ले जाए।